दर्द की चुप्पी


चुप हूं... पर शांत नहीं,
अंदर एक तूफ़ान है कहीं।
हँसता हूं सबके सामने,
पर भीतर टूटने की पहचान है कहीं।

हर मुस्कान में छिपा है एक घाव,
जो कहता है — “मैं भी था कभी बेहिसाब।”
बातें नहीं करती अब तकलीफ़ें,
बस रातों में आँखों से बह निकलती हैं।

लोग पूछते हैं — “ठीक हो?”
मैं कह देता हूं — “हाँ बिल्कुल।”
क्या कहूं कि हर 'ठीक' के पीछे,
एक 'न ठीक' की भीड़ छुपी होती है।

दर्द भी अब दोस्त बन गया है,
हर दिन उससे मिलना तय है।
वो कहता है — “मैं जाऊँगा नहीं,
जब तक तुम खुद को पा नहीं लेते।”

अब शिकायत नहीं तक़दीर से,
सीखा है हर आह में हुनर बुनना।
दर्द ने जो सिखाया,
वो किसी किताब में नहीं मिला।


"दर्द ज़िंदगी का अंत नहीं, एक रास्ता है — खुद तक पहुँचने का।"

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