""आज के बच्चे और हमारे पालन के तरीके"
"एक नई परवरिश की कहानी माया और आरव"
(आजकल के बच्चों की परवरिश कैसे करें — एक कहानी)
कहानी है माया की — एक मध्यमवर्गीय कामकाजी माँ, और उसके 12 साल के बेटे आरव की।
माया अपने बेटे को अनुशासन, संस्कार और आत्मनिर्भरता सिखाना चाहती थी, लेकिन बदलते समय ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया — क्या पुराने तरीके आज के बच्चों पर लागू होते हैं?
आरव का गुस्सा
एक दिन माया ऑफिस से लौटी तो देखा कि आरव अपने कमरे का दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर सो रहा था।
उसका चेहरा लाल था, और आँसू उसकी आँखों में थे।
"क्या हुआ बेटा?" माया ने पूछा।
आरव चिल्लाया, "आपको क्या फर्क पड़ता है? आप तो हर समय मुझसे नाराज़ रहती हैं!"
माया चौंकी। उसने आरव को हमेशा अच्छे स्कूल में पढ़ाया, समय पर खाना दिया, और उसका हर सपना पूरा करने की कोशिश की। फिर ये नाराज़गी क्यों?
एक पुराना तरीका, एक नई ज़मीन
रात को माया ने अपनी माँ से बात की।
"जब तू छोटी थी, डांट से सब सीखा। अब के बच्चों को ज़रा कुछ कह दो तो टूट जाते हैं। ये कैसे बड़े होंगे?" दादी ने कहा।
माया ने जवाब में चुप्पी साध ली। कहीं न कहीं, उसे भी लगा कि आज के बच्चों को सिर्फ आज्ञा नहीं, समझ भी चाहिए।
माया की बदलाव की शुरुआत
अगली सुबह माया ने एक छोटी सी शुरुआत की।
नाश्ते की टेबल पर उसने आरव से कहा, "कल जो हुआ, उसके लिए माफ़ी। मम्मी को समझना चाहिए था कि तुम्हारे लिए क्या ज़रूरी है।"
आरव ने पहली बार नज़र उठाकर माया की तरफ देखा।
“मैं फ्रेंड के सामने डांट खा गया था मम्मा। सब हँसने लगे। मुझे बुरा लगा।”
उसके शब्दों ने माया को झकझोर दिया। वो समझ गई कि आरव अब बच्चा नहीं रहा — उसे इज़्ज़त चाहिए, सिर्फ प्यार नहीं, सम्मान भी।
नई आदतें, नए रिश्ते
अब माया हर दिन आरव के साथ 10 मिनट "टेक-फ्री टाइम" बिताती थी।
दोनों मिलकर बातें करते, कभी-कभी खाना बनाते, और कभी आरव अपनी परेशानियाँ खुलकर बताता।
माया ने घर में एक “नो गैजेट जोन” बनाया — खाना खाते समय मोबाइल नहीं।
आरव ने पहले विरोध किया, लेकिन जब माया ने भी अपनी मोबाइल दूर रख दी, तो वह मुस्कुरा उठा।
सोशल मीडिया का असर
एक दिन आरव उदास था।
"मम्मा, मेरे पास अच्छे जूते नहीं हैं। मेरे दोस्त मुझ पर हँसते हैं।"
माया ने बिना डांटे पूछा, "क्या जूते से दोस्त बनते हैं या इंसान से?"
आरव ने सिर झुका लिया।
माया ने उसे एक कहानी सुनाई — एक बच्चे की, जो फटे कपड़ों में स्कूल जाता था लेकिन सबसे तेज़ दिमाग वाला था।
फिर माया ने धीरे से कहा, "हर चीज़ जो तुम्हें सोशल मीडिया पर दिखती है, ज़रूरी नहीं सही हो।"
अध्त्निर्भरता का पाठ
आरव 13 का हुआ, माया ने उसे अपनी छोटी जिम्मेदारियाँ देना शुरू कीं — जैसे स्कूल बैग खुद पैक करना, अलार्म लगाना, और महीने की पॉकेट मनी का हिसाब रखना।
एक बार जब उसने ₹500 की चॉकलेट खा ली, तो महीने भर बाहर खाना बंद हो गया।
आरव को बुरा लगा, लेकिन माया ने उसे सिखाया — “गलती सज़ा के लिए नहीं, सीखने के लिए होती है।”
आरव ने खुद माफ़ किया
एक दिन आरव के स्कूल में डिबेट प्रतियोगिता थी।
वो हार गया। घर आकर उसने खुद को कमरे में बंद कर लिया।
माया उसके पास गई, और कहा, "बेटा, हारने का मतलब ये नहीं कि तुम कमज़ोर हो। इसका मतलब है कि अब तुम्हारे पास सीखने का एक और मौका है।"
आरव ने पहली बार खुद से कहा, "मैं ठीक हूँ।"
अंतिम अध्याय परवरिश का असली मतलब
आज आरव 16 साल का हो चुका है।
वो पढ़ाई भी करता है, खाना भी बनाना जानता है, दूसरों की भावनाओं का सम्मान करता है, और सबसे बड़ी बात — अपने मन की बात कहने से डरता नहीं।
माया ने यह सब डांट-डपट से नहीं, बल्कि समझ, संवाद और सहयोग से सीखा और सिखाया।
आजकल की परवरिश में ज़रूरी है —
-
बच्चों से खुलकर बात करना
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उन्हें अपनी गलती से सीखने देना
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तकनीक से दोस्ती करना, पर दूरी बनाना
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संस्कार और आत्मनिर्भरता साथ सिखाना
-
खुद भी रोज़ कुछ नया सीखते रहना
क्योंकि परवरिश सिर्फ उन्हें बड़ा बनाना नहीं है, बल्कि अपने साथ-साथ खुद को भी बेहतर बनाना है।
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