मन का सफ़र

 


मन का सफ़र

यह मन है या कोई उड़ता पंछी, 

पल भर में यहाँ, पल भर में रांची।

 ना सीमा इसकी, ना कोई है छोर, 

जाने कब मच जाए इसमें शोर।

कभी ये शांत, गहरा सागर, 

कभी उठे इसमें लहरों का गागर। 

कभी ये धूप है, कभी ये छाँव, 

कभी ले जाए अनजान गाँव।

गुज़रे यादों की पगडंडियों से, 

भविष्य की चिंताओं के खंडहरों से।

 बीते कल को ये पकड़े रहता, 

आने वाले कल की धुन ये सुनता।

डर, चिंता, तनाव का बसेरा भी,

 खुशी, आशा, प्यार का डेरा भी।

 सब कुछ इसी में सिमटा रहता, 

बिन कहे ही सब कुछ सहता रहता।

कभी ये बांध ले बेड़ियों में हमको, 

कभी दे आज़ादी के पर हमको।

 इसके इशारों पर नाचते हैं हम, 

जाने कब मिलेगा इसको परम।

शांत करो इस चंचल घोड़े को, 

थोड़ा ठहराओ इसके जोड़े को। 

जो मन को साध ले, 

वो ही ज्ञानी, मन के सफर की यही है कहानी।

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